Sunday 26 February 2012

लेकिन हर एक दोस्त जरुरी होता है….

वो हमको फूल फूल कह के फूल बना गए……. 
हम गए पास तो एक कांटा चुभा गए…
जाने कहा से फिर से याद आ गयी उनकी…
सोने से पहले एक बार फिर से हमें रुला गए….
नींद खुली तो एहसास हुआ की वो एक सपना था…
सामने देखा तो बैठा कोई अपना था… 
मेरे दो दोस्त ठहाका लगा रहे थे… 
बोले सपने में भी तुम हमको बुला रहे थे… 
सपना भी कभी कभी हकीकत की तरह होता है…
वजह कोई भी हो , लेकिन हर एक दोस्त जरुरी होता है…..

Thursday 23 February 2012

गोल्ड फ्लेग से मोमेन्ट्स तक का सफर!! (आत्मकथा)






गोल्ड फ्लेग सिगरेट लेकर रेत के टीले के पीछे छुपते हुए दो-चार साईकिल से जाते थे…… 


किसी पहाड़ी में छिपकर रोज वो सिगरेट जो सफेद-भूरे रंग की होती थी…


बेस्वाद सी लगती थी … 


पर दो-चार कश लेने के बाद फ़िर कड़वी लगने लगती थी… 


क्यों वो बाद में पता चला .. 


सिगरेट तो पीनी आती नहीं थी ….. 


पहले कश में ही सिगरेट का फ़िल्टर अपनी जीभ से गीला कर देते थे और फ़िर वो कसैलापन मुँह में चढ़ता ही जाता । 






सिगरेट के जलते हुए सिरे को देखते हुए उस सिगरेट को खत्म होते देखते थे… 


सिगरेट का धुआँ और उसकी तपन शुरु में असहनीय होती थी… 


बाद में पता चला कि जब सिगरेट जलती है और जो आग उस सिगरेट को ऐश में बदलती है उसका तापमान १०० डिग्री होता है… 






पहली बार हमारे भौतिकी विज्ञान के प्रोफ़ेसर ने बताया था कि इसे ऐश कहते हैं… 


हम तब तक जिंदगी के मजे लेने को ही ऐश समझते थे, 


पर उस दिन हमें असलई ऐश समझ आई कि सिगरेट की राख जो कि जिंदगी को भी राख बना देती है, उसे ऐश कहते हैं… 






पता था कि ऐश करना अच्छी बात नहीं है… 


परंतु बहुत देर बाद समझ में आई ये बात… 


एक मित्र था अनुराग कहता था कि किसी भी नये शहर में जाओ तो सिगरेट और दारु से दांत काटे मित्र बड़ी ही आसानी से बन जाते हैं, 


किसी भी पानवाड़ी की गुमटी को अपना अडडा बना लो और फ़िर देखो …. 






जब शहर बदला तो यही फ़ार्मुला अपनाया 


और रेगुलर/गोल्ड फ्लेग छोड़ मोमेंट्स के साथ बहुत से दोस्त बनाये… 


अब लगता है वो ऐश खत्म होने से अच्छी दोस्ती खत्म हो गई, 


लोग आपस में बात करने के लिये समय नहीं निकाल पाते… 


कम से कम ऐश करते समय आपस में पाँच मिनिट बतिया तो लेते हैं… 


पर क्या करे हम ऐश करना छोड़ चुके हैं…. 


पर वो गोल्ड फ्लेग का कसैलापन अभी भी याद है…














(आत्मकथा : दिनेश सिंह नयाल ) 


पट्टी : तल्ला उदयपुर


ब्लोक : यमकेश्वर


वि.आ : भ्रगूखाल उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल 


सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित



Thursday 16 February 2012

मैं कौन हूँ

मैं कौन हूँ , मैं कौन हूँ , मैं कौन हूँ । 
जर्रा हूँ , समन्दर हूँ , या तुफान हूँ , 
मैं कौन हूँ , मैं नहीं जानता , मैं खुद 
से अभी तक अनजान हूँ । 
पानी हूँ , कश्ती हूँ , या साहिल हूँ , 
जीवन से बन्धा एक रिश्ता या , 
रिश्तो में बन्धी एक जान हूँ । 
आँखों में छुपा एक आँसूं हूँ या , 
दिल में बसा एक अरमान हूँ । 
मैं कौन हूँ ,मैं कौन हूँ ,मैं कौन हूँ मैं कौन हूँ , 
मैं नहीं जानता , मैं खुद से अभी तक अनजान हूँ । 
कौन हूँ मैं , गैर हूँ या अपना हूँ , 
बोझ हूँ किसी पर , या दुआ हूँ या , 
खुदा का किया कोई एहसान हूँ । 
मैं कौन हूँ……… 
खुशी हूँ , दर्द हूँ , या कोई एहसास हूँ , 
तन्हा हूँ या मैं किसी के पास हूँ , 
साज़ हूँ , राग हूँ , या दर्द भरी आवाज़ हूँ , 
मैं कौन हूँ , मैं नहीं जानता , 
मैं खुद से अभी तक अनजान हूँ । 
गीत हूँ , गज़ल हूँ , या शायर का कोई अन्दाज़ हूँ , 
मैं कौन हूँ , मैं कौन हूँ , मैं कौन हूँ , 
अन्त हूँ , मध्य हूँ , या कोई आगाज़ हूँ 
मैं कौन हूँ ,मैं कौन हूँ ,मैं कौन हूँ , 
सोचते सोचते एक उम्र गुज़र जायेगी , 
है यकीं मुझको मेरी पहचान मिल जायेगी।




(रचनाकार : दिनेश सिंह नयाल )

पट्टी/तल्ला : उदयपुर
ब्लोक : यमकेश्वर

उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल

सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित

Tuesday 14 February 2012

शहीद / ऐ वतन ऐ वतन

तू ना रोना, कि तू है भगत सिंह की माँ
मर के भी लाल तेरा मरेगा नहीं
डोली चढ़के तो लाते है दुल्हन सभी
हँसके हर कोई फाँसी चढ़ेगा नहीं

जलते भी गये कहते भी गये
आज़ादी के परवाने
जीना तो उसी का जीना है
जो मरना देश पर जाने

जब शहीदों की डोली उठे धूम से
देशवालों तुम आँसू बहाना नहीं
पर मनाओ जब आज़ाद भारत का दिन
उस घड़ी तुम हमें भूल जाना नहीं

ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी क़सम
तेरी राहों में जां तक लुटा जायेंगे
फूल क्या चीज़ है तेरे कदमों पे हम
भेंट अपने सरों की चढ़ा जायेंगे
ऐ वतन ऐ वतन

कोई पंजाब से, कोई महाराष्ट्र से
कोई यूपी से है, कोई बंगाल से
तेरी पूजा की थाली में लाये हैं हम
फूल हर रंग के, आज हर डाल से
नाम कुछ भी सही पर लगन एक है
जोत से जोत दिल की जगा जायेंगे
ऐ वतन ऐ वतन ...

तेरी जानिब उठी जो कहर की नज़र
उस नज़र को झुका के ही दम लेंगे हम
तेरी धरती पे है जो कदम ग़ैर का
उस कदम का निशां तक मिटा देंगे हम
जो भी दीवार आयेगी अब सामने
ठोकरों से उसे हम गिरा जायेंगे

Friday 10 February 2012

शुभ रात्रि

चलो मित्रो अब चलते है
कुछ सपने देखते है
रात को प्रेम और आनंद से बिता देते है... आप भी सोचे कितना थक गए है हम
अब इस थकान को जड़ से मिटा देते है ताकि सूरज की पहली किरण के साथ फीर एक नयी शुरुवात हो
जीत ले सारी दुनिया ऐसा आत्म विश्वास हो
आज की हार को भूल जाये हम कल की जीत के लिए हो तैयार हम

शुभ रात्रि

(रचनाकार: दिनेश सिंह नयाल )
9.2.2012
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित