Wednesday 30 May 2012

हुक्का

म्यार पहाड़ कु हुक्का च 
दान मनख्योँ की जान, 
गुड़गुड़गुड़गुड़गुड़ 
कि ये मां बस्युं च 
बुढ़-बुढ़्योँ कु प्राण, 
चा हो कतगा थकावट
या खुट-हत करना ह्वा परेशान 
गुड़गुड़गुड़गुड़ 
एक सुटका मारी 
वापस ऐ जदीन जान-प्राण, 
है ब्वारी यखुम आदी 
चुल्ल मनन अंगार लादी 
बल श्याम ह्वेगे तलब बहुत लगी रे 
तंबखु डाली की हुक्का जला दी 
गुड़गुड़गुड़गुड़ 
म्यार पहाड़ कु हुक्का च 
दान मनख्योँ की जान, 
गुड़गुड़गुड़गुड़गुड़ 
कि ये मां बस्युं च 
बुढ़-बुढ़्योँ कु प्राण, 
अब त घाम अछेँ ग्ये 
रुमुक पड़ी ग्ये 
गौं का बुढ़-बुढ़्योँ कु 
पंगत लगी ग्ये 
कन खट्टी-मीट्ठी छुईँ चन लगोँदा 
अर एक तरफ बटी 
गुड़गुड़गुड़गुड़ 
हुक्का छन सुटकोँणा 
ल्या ब्वाड़ा तुम भी प्या 
ल्या बोड़ी तुम बी ल्या 
ब्वाड़ा तै खांसी-खंकार च आणा 
गुडगुडगुडगुड हुक्का च प्याणा 
म्यार पहाड़ कु हुक्का च 
दान मनख्योँ की जान, 
गुड़गुड़गुड़गुड़गुड़ 
कि ये मां बस्युं च 
बुढ़-बुढ़्योँ कु प्राण..... 


(रचनाकार : दिनेश सिंह नयाल )

पट्टी/तल्ला : उदयपुर
ब्लोक : यमकेश्वर
वि.आ : भ्रगूखाल 


उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल

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Tuesday 29 May 2012

मेरा नजरिया

बैठ कर किनारे पै मैरा दीदार ना कर मुझको समझना है तो समन्दर मे उतर कर देख..!!

Monday 28 May 2012

शायरी

डरता हूँ मैं कहीं पागल ना बन जाऊँ,

तीखी नजर और सुनहरे रुप का कायल न बन जाऊँ,


अब बस कर जालिम कुछ तो रहम कर मुझ पर,


चली जा मेरी नजरों से दुर कहीं


मैं शायर ना बन जाऊँ.....।

Sunday 27 May 2012

पहाड़ कु ठंडो पानी

पाणी की भारी समस्या हुईँ 
रे मेरा गौं मा,
ये बार जब छुट्टी ग्यों 
पाणी सरना रों छोया
-गदनोँ (कुत्ताकटली) मा, 
कन मेरी गोली छे उबाणी, 
तीसा बाणा गीच्च मनन 
थूप बी नी छे आणी, 
पहाड़ को ठंडो पाणी , 
बल तीसा गोलों मा पड़नी 
छे स्याणी, 
आहा धार मनक पाणी 
क्या रोंस छे आणी 
नहयाणा रों आहा कन ठंडो 
छोयों कु पाणी, 
भरी बंठा-गागर 
भरी डब्बा 
अर खणमण-खणमण कोरी 
गीरे दे बरमंड मा 
आहा कन ठंडो पाणी 
जन बुल्या कैन अंखड़्ये दे ह्वाल 
फ्रीज मनक बोतल, 
श्येल पोडीगे शरील मा 
ठंडु पोड़ग्ये शरील, 
यन ठंडो पाणी कबी 
मिल नी सकदु शहर मा, 
जैमा मेरु पहाड़ कु स्वाद बस्यु हो...

(रचनाकार : दिनेश सिंह नयाल )

पट्टी/तल्ला : उदयपुर
ब्लोक : यमकेश्वर
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Thursday 24 May 2012

हाल यन छन म्यार पहाड़ का



हाल यन छन म्यार पहाड़ का,
मनखि चली जांदिन अपुर घोर
-बार पुंगडी पटली छोड़ी की,
रैं जांदिन उँका पिछन्या टुटीं
अर उजडीँ कुड़ी,
अशाढ आई फागुण आई
पर जब आई बसगाल,
पुरी कुड़ी उजड़ी गई,

माटा पुरी बोगी गै
अर निर्पट ह्वे गी घर-बार
त दीदोँ हाल यन छन म्यार पहाड़ का,
हे मनखी तुम इतगा त जाणा,
तुम बगेर ये कुड़ी कन कै रयाणा
इतगा नीठुर ना बण्या,
अपणा घोर-बार दिखणा रयाँ..!!

हाल यन छन म्यार पहाड़ का...
हाल यन छन म्यार पहाड़ का...

(रचनाकार : दिनेश सिंह नयाल )




पट्टी/तल्ला : उदयपुर
ब्लोक : यमकेश्वर
वि.आ : भ्रगूखाल 


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Wednesday 23 May 2012

पहाड़ पुकारता है










थम चुकी है बारिश

बस रह-रह कर गीली दीवारों से
कुछ बूँदें टपक पड़ती है
मैं अपनी छत पर जाकर
देखता हूं पहाड़ों का सौंदर्य

कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं

मेरे घर के ठीक सामने के पहाड़ पर
है बाबा नीलकंठ का डेरा
इधर उत्तर में विराजमान हैं
माता कुंजापुरी आशीष दे रहीं
इनके चरणों मैं बैठा हूँ 

कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं

बारिश के बाद अब धुलकर हरे-भरे हो गए हैं
पहाड़ सफ़ेद बादलों के छोटे-२ झुण्ड बैठ गए
है इसके सर पर इस अप्रतिम सौंदर्य
को निहारता हूँ 

कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं

पहाड ने दिए हमें पेड़, पानी, नदियाँ, गदेरे
ये रत्न-गर्भा और ठंडी बयार
पर पहाड़ का पानी और जवानी
दोनों ही बह गए इसके ढलानों पर
मैं पहाड़ पर नहीं हूँ

फिर भी कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं

पहाड़ को कभी रात में देखा है
हमारी संस्कृति का ये महान प्रतीक
अँधेरे में सिसकता है, दरकता है
पुकारता है आर्द्र स्वर में कि लौट आओ
मैं पहाड़ पर लौट नहीं पा रहा हूँ

पर कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं

ये खुदेडा महीना उदास कर रहा है
क्यों बादल ही तो बरसे हैं फिर
भला आँखें मेरी नम हैं
क्यों पहाड़ रो रहा है, हिचकी मुझे आती है
क्यों मैं समझ नहीं पा रहा हूँ,

क्या वाकई खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं..




नोट- इस कविता में पहाड़ों से युवाशक्ति के पलायन और पहाड़ का दर्द व्यक्त करने की ये मेरी एक कोशिश भर है|