Tuesday 17 July 2012

सूने पड़े घर



हमने कहीं देखे थे
वे घर
जिनमें अब कोई नहीं रहता
खुले पड़े दरवाज़े इन्तजार थे और
सूखे हुए
पीपल के पत्ते सीढि़यों का ढाँपे हुए
न सत्कार में जुड़े हाथ नमस्कार थे
न किसी का आगमन
एक हलकी चीख़
किसी के लिए भी घर में
नहीं बन रही थी चाय
न संसार के किसी भी डाक-बक्से में कोई अपनी
चिट्ठी उस पते पर डाल रहा था
घर के बच्चे
वापस कभी न लौटने को ही
गये थे अपने बस्तों और जहाज़ों के साथ
रसोईघर एक बुझा हुआ चूल्हा था
जो साथ न ले जाया जा सका था
चुप्पी एक आवाज़ थी कमरों में बराबर
गश्त लगाती हुई
दीमकों ने निर्मित कर लिए थे
बिल और
वे
बराबर सक्रिय थीं फ़र्श पर
हमारे ठीक सामने
ठहरा हुआ था
राख जैसी हवा का डंक
हमने पाया
दरवाज़ों का बंद होना ताकि
खोल सके कोई उन्हें हमारे लिए
हमने सुनी ख़ुशी
जो हमारे आने से घर में जगी
हमने पी चाय जो निस्सन्देह बहुत स्वादिष्ट थी
चूल्हे पर उतरती हुई गर्म रोटी को सूँघा
फिर
उन दीमकों को देख कर रो पड़े
फ़र्श पर कहीं नहीं थे
जिनके बिल....

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द्वाराः-दिनेश नयाल





















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