Friday 23 May 2014

देखि एक रुप सी बाँध
















त्यार रुप रंग द्येखी
म्यार बोल्या मन बिगड़ी ग्ये,
है रुपा की अन्वार बाँध
 नौ अपरु बिंग्ये दे...
कुजणी कै बाटा ऐ
म्यार बाटा बिगड़ी ग्ये
कै गौं की होली बाँद
आस मन मा रै ग्ये...
डणखणु छोँ घाम दुफरी
घोर अपणा जाणु छोँ
मन मा एक नाम लेकी
नाम वुई खुजाणु छोँ...
कख होली वा रुप सी बाँध
क्या होलु वीं का नाम.. 

 रचनाकार: दिनेश नयाल
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित
उत्तराखंड पौडी गढवाल


Sunday 2 March 2014

स्कूल के दिन: जिंदगी के बेहतरीन यादगार पल।



यदि कोई मुझसे पूछता है कि जिंदगी के सबसे बेहतरीन और घटिया क्षण आपके कौन से हैं?
तो मेरा जवाब वापस वहीं पे आ टिकता है।
हाँ बेहतरीन पलोँ की यदि बात करूँ तो स्कूल में बिताए वो सारे क्षण जो मुझे याद हैं बेहतरीन थे।
और
घटिया-बुरे दिनों की शुरुआत तब हुई जब मैं इतना बड़ा हो गया कि स्कूल छोड़ना पड़ा, अब में स्कूल नहीं जा सकता था।
और ज्यादा बुरा दिन इस स्थानांतरण ने किया जब दिल्ली छोड़ कानपुर आना पड़ा...
,,
मुझे ये भी पता है ज्यादातर बच्चे स्कूल से नफरत करते हैं और रविवार की साप्ताहिक छुट्टी बिता कर जब सोमवार स्कूल जाने का समय आता है तो उस से मन-मुटाव करने लगते हैं, पर में एक साधारण सा था।
मैं छुट्टियों से नफरत करता था, और स्कूल खुलने का इंतजार नहीं कर पाता था। घर में बोरियत महसूस करता था।
स्कूल तो जैसे मेरा पहला घर था एवं दोस्त और टिचर्स मेरे परिवार के सदस्य!!!
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यदि बात करूँ स्कूल छोड़ने की तो तीन साल हो चुके हैं...स्कूल छोड़े और इस प्रतिस्पर्धा भरी दुनिया में उतरे हुए...
जहाँ हर कोई रफ्तार से चलता है, पता नहीं क्योँ मैं अपने आप को कमजोर महसूस करता हूँ, हद से ज्यादा दबाव ये मेरी जिंदगी में आया अचानक परिवर्तन था जिसने मुझे असुविधापूर्ण बना दिया।
हालाँकि मुझे अभी भी याद है वो दिन जब हमारे स्कूल टिचर्स हमेंशा हमें सुविधापूर्ण और दबाव सहने की शिक्षा दिया करते थे।
मैं अचानक ऐसी जगह धकेल दिया गया जहाँ प्रोफेसर को हमारे भविष्य और सुविधा से कोई लेन देन नहीं और हमारे जिंदगी से जुड़ी बहुत कम बातें होती हैं यहाँ।
जैसे बोल रहे हों ' अपने आप करो जो करना है, नहीं तो रहने दो '
नियम और कानूनों का दायरा खत्म हो चुका है अब।
बचे हम वक्त के साथ जाने कब खत्म हो जाएँ लेकिन हाँ जिंदगी अभी भी वैसी ही चल रही है ' जिन्न ' कुछ नहीं बदला।,,,
बदले सिर्फ तो वो जगह, वो दोस्त , वो टिचर्स और....

स्कूल ( अब विश्वविद्यालय )..

दिनेश नयाल( जिन्न )
सर्वाधिक सुरक्षित एवं प्रकाशित

2 march, 2014

Thursday 27 February 2014

कफन: मुंशी प्रेमचंद

  • मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में कफन उनकी प्रतिनिधि कहानी मानी जीती है।
  • ' कफन ' कहानी के सारांश रुप में कहा जा सकता है कि
  • जिस प्रकार एक मनुष्य भूख के आगे पशु से भी निम्न स्तर पर गिरकर सोचना तथा कार्य करता है।


 

कफन कहानी का सारांश निम्न है:- कहानी के दो पात्र हैं- घीसू और माधव।


घीसू पिता और माधव उसका पुत्र है। दोनों ही आलसी और कमजोर हैं।
घीसू एक दिन काम करता है और तीन दिन विश्राम। माधव भी आधा घंटा काम करता है और घण्टा भर चिलम पीता रहता है। गाँव में काम की कमी न थी, परन्तु उन दोनों को कोई मजदूरी पर नहीं बुलाता था। उनका काम था रात में कहीं से लकड़ी तोड़ लाना, खेतों से गन्ने, आलू या मटर चुरा लाना और वे उसी से अपना पेट भरते थे। इनके पास घर के नाम पर एक झोपड़ी थी और बाकी सम्पत्ति के नाम पर घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन थे। फटे-पुराने कपड़े पहनकर दिन काट रहे थे। जब बिल्कुल फाँके रह जाते तो कोई न कोई बहाना बनाकर माँगकर खाते थे। जिससे एक बार उधार लिया दोबारा कभी नहीं दिया। यदि कोई मारता पिटता तो उन्हें कोई गम न था। कर्ज से लदे थे तो भी इन्हें कोई चिंता नही थी। अभिशाप से गिर कर भी आराम से रह रहे थे। प्रेमचंद इनकी जीवन-शैली पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं '' अगर दोनों साधु होते तो उन्हें संतोंष और धैर्य के लिए संयम और नियम की बिल्कुल जरूरत न होती। यही तो उनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था उनका। '' घीसू के जीवन से साठ वर्ष निकल गए थे। उसकी नौ सन्तानें थीं परन्तु सनमें से केवल माधव ही बचा था। अब माधव भी अपने पिता के कदमों पर चल रहा था। मानोँ अपने पिता का नाम रोशन कर रहा हो।

गत वर्ष ही माधव की शादी हुई थी। उसकी पत्नी अत्यंत भोली एवं मेहनती थी। उसने आकर उनके खानदान को कुछ व्यवस्थित किया था। वह लोगों के घरों के काम करती और करके इन दोनों का पेट भरती थी। अब ये दोनों ज्यादा आराम-परस्त हो गए थे। विवाह के एक वर्ष पश्चात माधव की पत्नी बुधिया प्रसव वेदना से कराह रही थी और झोपड़ के बाहर बाप-बेटे दोनों कहीं से चुराकर लाए आलुओं को भून रहे थे। सर्दी की ठंडी रात थी। गाँव सोया पड़ा था। झोपड़ी के अंदर बुधिया प्रसव वेदना से चिल्ला रही थी। वह इतनी पीड़ाग्रस्त थी कि सुनने वालों का दिल दहल जाता था। परंतु वे दोनों भूने हुए आलु खाने में लगे हुए थे। दोनों में से कोई बुधिया के पास नहीं जाना चाहता था। उनको एक- दूसरे पर भरोसा नहीं था। घीसू ने माधव को बुधिया के पास जाने के लिए कहा। माधव को भय था कि अगर वह बुधिया को देखने झोपड़ी में गया तो घीसू सारे आलू खा जाएगा। वे बुधिया के तड़प-तड़पकर मरने से चिंतित नहीं थे। वे सोच रहे थे कि अगर बुधिया मर जाए तो अच्छा ही होगा, क्योंकि वह इन सब दुःखों से मुक्त हो जाएगी।

घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा-जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है!
माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ कर देगा। बोला-मुझे वहाँ जाते डर लगता है।
‘डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।’
‘तो तुम्हीं जाकर देखो न?’
‘मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं; और फिर मुझसे लजाएगी कि नहीं? जिसका कभी मुँह नहीं देखा, आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूँ! उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी!’
‘मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हुआ, तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!’
‘सब कुछ आ जाएगा। भगवान् दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपये देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था; मगर भगवान् ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।’
जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान् था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था। हाँ, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाजों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहाँ उसकी मण्डली के और लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गाँव उँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते! दोनों आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नहीं खाया था। इतना सब्र न था कि ठण्डा हो जाने दें। कई बार दोनों की जबानें जल गयीं। छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा जबान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज्यादा खैरियत इसी में थी कि वह अन्दर पहुँच जाए। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफी सामान थे। इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते। हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते।
घीसू को उस वक्त ठाकुर की बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। 
उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, 
और आज भी उसकी याद ताजी थी, बोला-वह भोज नहीं भूलता। तब से फिर उस तरह का 
खाना और भरपेट नहीं मिला। लडक़ी वालों ने सबको भर पेट पूडिय़ाँ खिलाई थीं, सबको! 
छोटे-बड़े सबने पूडिय़ाँ खायीं और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग,
 एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोज में क्या स्वाद मिला, 
कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज चाहो, माँगो, जितना चाहो, खाओ। 
लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पिया गया। 
मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म, गोल-गोल सुवासित कचौडिय़ाँ डाल देते हैं। 
मना करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिये जाते हैं। और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान-इलायची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी? खड़ा हुआ न जाता था। चटपट जाकर अपने कम्बल पर लेट गया। ऐसा दिल-दरियाव था वह ठाकुर!
माधव ने इन पदार्थों का मन-ही-मन मजा लेते हुए कहा-अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता।‘अब कोई क्या खिलाएगा? वह जमाना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। सादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोरकर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ, खर्च में किफायत सूझती है!’
‘तुमने एक बीस पूरियाँ खायी होंगी?’
‘बीस से ज्यादा खायी थीं!’
‘मैं पचास खा जाता!’
‘पचास से कम मैंने न खायी होंगी। अच्छा पका था। तू तो मेरा आधा भी नहीं है।’आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलिया मारे पड़े हों।और बुधिया अभी तक कराह रही थी।
२सबेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठण्डी हो गयी थी। उसके मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। पथराई हुई आँखें ऊपर टँगी हुई थीं। सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था।
माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों जोर-जोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आये और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे।
मगर ज्यादा रोने-पीटने का अवसर न था। कफ़न की और लकड़ी की फिक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह गायब था, जैसे चील के घोंसले में माँस?
बाप-बेटे रोते हुए गाँव के जमींदार के पास गये। वह इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे। कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे। चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए। पूछा-क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखलाई भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता।घीसू ने जमीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा-सरकार! बड़ी विपत्ति में हूँ। माधव की घरवाली रात को गुजर गयी। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा वह हमें दगा दे गयी। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा मालिक! तबाह हो गये। घर उजड़ गया। आपका गुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा। हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में उठ गया। सरकार ही की दया होगी, तो उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ।जमींदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कम्बल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह दें, चल, दूर हो यहाँ से। यों तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब गरज पड़ी तो आकर खुशामद कर रहा है। हरामखोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दण्ड देने का अवसर न था। जी में कुढ़ते हुए दो रुपये निकालकर फेंक दिए। मगर सान्त्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ ताका तक नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो।
जब जमींदार साहब ने दो रुपये दिये, तो गाँव के बनिये-महाजनों को इनकार का साहस कैसे होता? घीसू जमींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना जानता था। किसी ने दो आने दिये, किसी ने चारे आने। एक घण्टे में घीसू के पास पाँच रुपये की अच्छी रकम जमा हो गयी। कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकड़ी। और दोपहर को घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बाँस-वाँस काटने लगे।
गाँव की नर्मदिल स्त्रियाँ आ-आकर लाश देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।३बाज़ार में पहुँचकर घीसू बोला-लकड़ी तो उसे जलाने-भर को मिल गयी है, क्यों माधव!
माधव बोला-हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिए।‘तो चलो, कोई हलका-सा कफ़न ले लें।’‘हाँ, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जाएगी। रात को कफ़न कौन देखता है?’
‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।’‘कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।’‘और क्या रखा रहता है? यही पाँच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।’दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाजार में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस बजाज की दूकान पर गये, कभी उसकी दूकान पर! तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि शाम हो गयी। तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुँचे। और जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अन्दर चले गये। वहाँ जरा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे। फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा-साहूजी, एक बोतल हमें भी देना।उसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शान्तिपूर्वक पीने लगे।
कई कुज्जियाँ ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गये।घीसू बोला-कफ़न लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो न जाता।माधव आसमान की तरफ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो-दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बाँभनों को हजारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!
‘बड़े आदमियों के पास धन है, फ़ूँके। हमारे पास फूँकने को क्या है?’
‘लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफ़न कहाँ है?’
घीसू हँसा-अबे, कह देंगे कि रुपये कमर से खिसक गये। बहुत ढूँढ़ा, मिले नहीं। लोगों को विश्वास न आएगा, लेकिन फिर वही रुपये देंगे।
माधव भी हँसा-इस अनपेक्षित सौभाग्य पर। बोला-बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो खूब खिला-पिलाकर!
आधी बोतल से ज्यादा उड़ गयी। घीसू ने दो सेर पूडिय़ाँ मँगाई। चटनी, अचार, कलेजियाँ। शराबखाने के सामने ही दूकान थी। माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया। पूरा डेढ़ रुपया खर्च हो गया। सिर्फ थोड़े से पैसे बच रहे।दोनों इस वक्त इस शान में बैठे पूडिय़ाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो। न जवाबदेही का खौफ था, न बदनामी की फ़िक्र। इन सब भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था।
घीसू दार्शनिक भाव से बोला-हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा?
माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक़ की-जरूर-से-जरूर होगा। भगवान्, तुम अन्तर्यामी हो। उसे बैकुण्ठ ले जाना। हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला वह कभी उम्र-भर न मिला था।
एक क्षण के बाद माधव के मन में एक शंका जागी। बोला-क्यों दादा, हम लोग भी एक-न-एक दिन वहाँ जाएँगे ही?
घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया। वह परलोक की बातें सोचकर इस आनन्द में बाधा न डालना चाहता था।
‘जो वहाँ हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफ़न क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे?’
‘कहेंगे तुम्हारा सिर!’
‘पूछेगी तो जरूर!’
‘तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!’
माधव को विश्वास न आया। बोला-कौन देगा? रुपये तो तुमने चट कर दिये। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में तो सेंदुर मैंने डाला था।
‘कौन देगा, बताते क्यों नहीं?’
‘वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया। हाँ, अबकी रुपये हमारे हाथ न आएँगे।’‘ज्यों-ज्यों अँधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज होती थी, मधुशाला की रौनक भी बढ़ती जाती थी। कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपटा जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्हड़ लगाये देता था।
वहाँ के वातावरण में सरूर था, हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाएँ यहाँ खींच लाती थीं और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं। या न जीते हैं, न मरते हैं।
और यह दोनों बाप-बेटे अब भी मजे ले-लेकर चुसकियाँ ले रहे थे। सबकी निगाहें इनकी ओर जमी हुई थीं। दोनों कितने भाग्य के बली हैं! पूरी बोतल बीच में है।
भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूडिय़ों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा इनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था। और देने के गौरव, आनन्द और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया।घीसू ने कहा-ले जा, खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गयी। मगर तेरा आशीर्वाद उसे जरूर पहुँचेगा। रोयें-रोयें से आशीर्वाद दो, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं!
माधव ने फिर आसमान की तरफ देखकर कहा-वह बैकुण्ठ में जाएगी दादा, बैकुण्ठ की रानी बनेगी।घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला-हाँ, बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गयी। वह न बैकुण्ठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं?
श्रद्धालुता का यह रंग तुरन्त ही बदल गया। अस्थिरता नशे की खासियत है। दु:ख और निराशा का दौरा हुआ।माधव बोला-मगर दादा, बेचारी ने जिन्दगी में बड़ा दु:ख भोगा। कितना दु:ख झेलकर मरी!
वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा। चीखें मार-मारकर।घीसू ने समझाया-क्यों रोता है बेटा, खुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गयी, जंजाल से छूट गयी। बड़ी भाग्यवान थी, जो इतनी जल्द माया-मोह के बन्धन तोड़ दिये।
और दोनों खड़े होकर गाने लगे-
‘ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी।

पियक्कड़ों की आँखें इनकी ओर लगी हुई थीं और यह दोनों अपने दिल में मस्त गाये जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, अभिनय भी किये। और आखिर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े।



Tuesday 18 February 2014

व्यक्तित्व




people lough at me because I'm

DIFFERENT.. 

but i lough at them coz they're all the same 

ATTITUDE..


...Dinesh Nayal

पर्यावरण ( एक व्यंग्य )


उसने अपने घर के बाहर लगा
एस वृक्ष काटा और बना ली दुकान
अब तम्बाकू के पौच और सिगरेट
बेचकर घर चलाता है वह और उसके ग्राहक
धुआं उराते.

और,, 
हुए
पर्यावरण के खराब होने
पर चिन्ता जताते हैं।

सहने वाले



कहने वालों का कुछ नहीं जाता.. 
सहने वाले कमाल करते हैं,
कौन ढूंढे जवाब दर्दों के,, 
लोग तो बस सवाल करते हैं.. 

दिनेश नयाल

Wednesday 12 February 2014

GOOD MORNING




कोई भी शिक्षक, प्रोफेसर या कोई और ..
नहीं सिखाता। 
लेकिन खाली पेट, खाली जेब और टूटा हुआ दिल जीवन का 
सबसे महत्वपूर्ण सबक सिखा सकता है ... ,,

सुप्रभात ..


दिनेश नयाल ( जिन्न )
सर्व अधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित

Saturday 8 February 2014

नया सवेरा

नई नई सु्बह नया नया सवेरा 

सुरज की किरणें विच हवाओं का बसेरा 

खुले आसमान में सुरज का चेहरा  

मुबारक हो आपको ये हसीं सवेरा

सुभ प्रभात दोस्तों 

दिनेश नयाल ( जिन्न  )
सर्वअधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित 

Thursday 6 February 2014

ऐसा कोई प्यारा

सुना है... आज है गुलाब दिवस
गुलाब हैँ देते आपस में,
,
है जो दो प्यार करने वाले,
बिन जिसके सूना है ये तन-मन..
 ,
जिन्न ढूँढ रहा ऐसा प्यारा
जो अपनाए ना गुलाब किसी का
अपनाए जिन्न का प्यार हमेशा...
,
समझे इस कवि ह्रदय को
पहचाने इस कवि ह्रदय को
ढूँढ रहा हूँ में भी.... ,
,

' ऐसा कोई प्यारा '

 ( गुलाब दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ दोस्तों )

 सर्वाधिक सुरक्षित एवं प्रकाशित
 दिनेश नयाल ( जिन्न )
७/२/२०१४

Sunday 2 February 2014

मेरा नजरिया २




-दिनेश नयाल ( जिन्न )
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित