Saturday, 8 December 2012

मेरी प्यारी मम्मी

मैने कुछ जोर से बोल दिया था तुम्हें
और तुम रो पड़ी थी.
पर तुम रसोई में काम 
करते करते रो रही थी ,
मुझे पता भी चलने नहीं दीया था..
और मै अचानक पानी पिने 
रसोई में आया,
तो देखा की तेरी आँखों में 
आँसू बहे जा रहे थे..,
मैंने पूछा मम्मी क्या हुवा ?

क्यों रो रही हों ?
तो तुमने कहा बेटा 
अगर मेरा बच्चा मुझे जोर से कुछ कहे 
तो मुझसे कैसे सहा जाएगा.
मुझे बहुत दुःख हुवा की 
मैंने मेरी माँ का दिल दुखाया..
मैँ उसके गले लग गया और मैंने कहा
"माँ, तो मुझे डाट लेना था ,
क्यों अकेले अकेले रो रही हों ?
तो माँ ने कहा 
"बेटा अगर मैं तुम्हें जोर से डाटूंगी 
तो तुम्हें भी दुःख होता ना.
वो बात को याद करके आज भी रो देता हूँ..
मुझे माफ़ कर देना मम्मी.
मैं कितनी खुशनसीब हूँ की तुम आज भी मेरे पास हो और मेरे साथ हो..





(रचनाकार : दिनेश सिंह नयाल )

पट्टी/तल्ला : उदयपुर
ब्लोक : यमकेश्वर
वि.आ : भ्रगूखाल 

उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल

सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित

Tuesday, 16 October 2012

ये मै कहाँ आ गया...

पहले कच्चे घर मे,

पक्के दिल वाले मिलते थे
अब पक्के घर मे कच्चे दिल वाले मिलते हैं,यहाँ
ये मै कहाँ आ गया...
हँसते-मुस्कुराते चेहरे बेशक लगते हैं प्यारे,
पर मुस्कुराहट के पीछे अब
कोई मतलब जुड़ा है,यहाँ 
ये मै कहाँ आ गया...
जिंदगी के राह पर चलते-चलते
मिल जाते हैं कई अनजाने लोग
कोई अपना तो कोई सपना सा लगता है 
पर अब देखता हूँ,कि
कोई भरोसा के लिए तो
कोई भरोसा करके रोता है,यहाँ
ये मै कहाँ आ गया...
हर ज़ज्बात को जुबान नही मिलती है
हर आरजू को दुआ नही मिलती है
अब दुःख-दर्द को गुस्से का नाम दिया जाता है
अब तो,
पलकों पर बिठाया जाता है,नजरों से गिराने के लिए,यहाँ
ये मै कहाँ आ गया...
अब अच्छा नही लगता है ये जहाँ 
ये मै कहाँ आ गया...?

...दिनेश नयाल

Tuesday, 17 July 2012

सूने पड़े घर



हमने कहीं देखे थे
वे घर
जिनमें अब कोई नहीं रहता
खुले पड़े दरवाज़े इन्तजार थे और
सूखे हुए
पीपल के पत्ते सीढि़यों का ढाँपे हुए
न सत्कार में जुड़े हाथ नमस्कार थे
न किसी का आगमन
एक हलकी चीख़
किसी के लिए भी घर में
नहीं बन रही थी चाय
न संसार के किसी भी डाक-बक्से में कोई अपनी
चिट्ठी उस पते पर डाल रहा था
घर के बच्चे
वापस कभी न लौटने को ही
गये थे अपने बस्तों और जहाज़ों के साथ
रसोईघर एक बुझा हुआ चूल्हा था
जो साथ न ले जाया जा सका था
चुप्पी एक आवाज़ थी कमरों में बराबर
गश्त लगाती हुई
दीमकों ने निर्मित कर लिए थे
बिल और
वे
बराबर सक्रिय थीं फ़र्श पर
हमारे ठीक सामने
ठहरा हुआ था
राख जैसी हवा का डंक
हमने पाया
दरवाज़ों का बंद होना ताकि
खोल सके कोई उन्हें हमारे लिए
हमने सुनी ख़ुशी
जो हमारे आने से घर में जगी
हमने पी चाय जो निस्सन्देह बहुत स्वादिष्ट थी
चूल्हे पर उतरती हुई गर्म रोटी को सूँघा
फिर
उन दीमकों को देख कर रो पड़े
फ़र्श पर कहीं नहीं थे
जिनके बिल....

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द्वाराः-दिनेश नयाल





















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Saturday, 14 July 2012

बचपन की यादे —



क्या आप इन्ही में से किसी कविता में अपना बचपन खोया हुआ देख पाते है ?


मछली जल की रानी है,
जीवन उसका पानी है।
हाथ लगाओ डर जायेगी
बाहर निकालो मर जायेगी।
************

पोशम्पा भाई पोशम्पा,
सौ रुपये की घडी चुराई।
अब तो जेल मे जाना पडेगा,
जेल की रोटी खानी पडेगी,
जेल का पानी पीना पडेगा।
डाग डाग डाग थै थैयाप्पा
************

आलू-कचालू बेटा कहाँ गये थे,
बन्दर की झोपडी मे सो रहे थे।
बन्दर ने लात मारी रो रहे थे,
पापा ने पैसे दिये हंस रहे थे।
**************

आज सोमवार है,
चूहे को बुखार है।
चूहा गया डाक्टर के पास,
डाक्टर ने लगायी सुई,
चूहा बोला उईईईईई।
************

झूठ बोलना पाप है,
नदी किनारे सांप है।
काली माई आयेगी,
गला काट ले जायेगी।
************

चन्दा मामा दूर के,
पूए पकाये भूर के।
आप खाएं थाली मे,
मुन्ने को दे प्याली में।
************

तितली उड़ी,
बस मे चढी।
सीट ना मिली,
तो रोने लगी।
ड्राईवर बोला, आजा मेरे पास,
तितली बोलीहट बदमाश
************

द्वारा:-दिनेश नयाल

Monday, 9 July 2012

रात्रि सन्देश

एक सपना एक इच्छा है
जो आपका दिल बनाता है
आप गहरी नींद में होते है 
सपने में
आप अपने दिल के दर्द को खो देते है.

शुभ रात्रि

....दिनेश नयाल

Thursday, 28 June 2012

फिर जब याद आए स्कूल के दिन


कभी पहली बार स्कूल जाने में डर लगता था,


आज अकेले ही दुनिया घुम लेते हैं!


पहले 1st आने के लिए पढ़ते थे,


आज कमाने के लिए पढ़ते हैं!


कभी छोटी सी चोट लगने पर रोते थे,


आज दिल टूट जाने पर भी संभल जाते हैं!


पहले हम दोस्तों के साथ रहते थे,


आज दोस्त हमारी यादों में रहते हैं!


पहले लड़ना मनाना रोज का काम था,


आज एक बार लड़ते हैं तो रिश्ते खो जाते हैं.


सच में जिंदगी ने बहुत कुछ सिखा दिया,


जाने कब हम को इतना बड़ा बना दिया.

Sunday, 24 June 2012

ये शाम मस्तानी

लहरा के नीली झील मे ढलता है शाम को,
सूरज का रंग रूप बदलता है शाम को !!
हमसे हो एक गरीब के आँगन मे रोशनी,
सिक्का हमारे नाम का चलता है शाम को !!
मेहनत की आँच मे तपे मजदूर की तरह,
सूरज का जिस्म रोज़ पिघलता है शाम को !!
हासिल है उसको जादूगरी मे बडा कमाल,
मुट्ठी मे चाँद ले के निकलता है शाम को !!
उसके नसीब मे नही मंज़िल की रोशनी,
जो आदमी सफर मे निकलता है शाम को !!
लाखो घरो मे रोज़ की मशक़्क़त के बावज़ूद,
चूल्हा चिराग की तरह जलता है शाम को !!!

वक्त की रफ्तार

एक दिन वक़्त से पूछा मैने,
भाई इतना तेज़ क्यूँ चलते हो?
चन्द खुशियाँ हमारे साथ न रह जाये,
क्या इसलिये जलते हो? अरे !
कुछ दिन इन्हे हमारे साथ रहने दो,
कुछ समय के लिये ही सही,
मुझे इनके साथ बहने दो,
तुम्हारा क्या चला जायेगा,
मेरा मन बहल जायेगा,
आज तो मेरी बात मान ही जाओ,
थोडा सा रुक जाओ,
यूँ न सताओ,
हँसने लगा वक़्त ये कहते हुए
जीना तो पडेगा सब कुछ यह सहते हुए,
अरे ! जो अस्थायी है उसके लिये रोते हो,
और स्थायित्व को खोते हो,
अरे भाई !खुशियाँ तो चन्द लम्हो के लिये आती है,
और यादे ज़िन्दगी भर साथ निभाती है,
मै तो अपनी ही गति से चलता जाऊँगा,
तुम्हारे निवेदन से भी रुक न पाऊँगा,
मेरी गति मे से ही कुछ लम्हे चुरा लो,
कुछ पल उनके साथ रहकर,
फिर उन्हे अपनी यादे बना लो,
फिर उन्हे अपनी यादे बना लो......!!!

Sunday, 17 June 2012

पिता दिवस

जिनकी उँगली थाम के चलना सीखा है, 
जाना हर मुश्किल से बहार निकलना, 
एक दिन उनके नाम, 
अपने प्यारे पापा को हमारा सलाम... 


 पिता दिवस मुबारक हो। :)

Saturday, 16 June 2012

रात्रि संदेश

जब कभी आप अपने हृदय के भीतर सपनेँ संजोते हैं, उसे कभी खोने न दें क्योंकि सपनें एक छोटे बीज की तरह हैं, जिनसे बेहतरीन कल जन्म लेता है। एक अद्भुत सपना आज रात के लिए शुभ रात्रि। दि.न

गढ़वाली शायरी

स्याण चांदु छो पर नींद नी आंदी चा, 
करवट बदल - बदली की यनी रात कटे जांदी चा, 
कोर भी दे प्यार कु इजहार ए सोँजड़्या, 
आखर किले छे तु इतगा सतोणी …

Wednesday, 13 June 2012

गढ़्वाली कविता स्कुल के दिन

स्कूल के दिनोँ में काटे गये छोटे-मोटे पल 
जब याद आते हैं तो दिल से 
मेरी यह रचना नीकलती है।


यख एक कविता च ऊँ दगड़्योँ कुन 
जु स्कूला विदई का आखरी दिन म्यार दगड़ी छै .....



बाट दिखीँ छै ये दिना की कुजणी कब बटी की,
अगण्या का सुपिन्या सजयां छै कुजणी कब बटी की,
भोत कुल्बुल्याणा रयाओ यक बटी जाणा कुन ,
जिँदगी कु अगल पड़ाव पाणा कुन ,
पर कुजणी किले…
दिल मा आज हाईगी कुछ आंद चा,
समय तै रुकणा कु ज्यु चांदु चा,
ज्योँ बात पन रुवै आंद छै कभी!
आज वों पन हँसी च आणी,
कुजणी किले आज वों दिना की याद छे आंदी,
बुल्ना रयांद छै …धो मुश्किल कोरी एक साल सह ग्याओ,
पर आज किले लगणु चा कुछ पिछण्या रै ग्याओ,
ना बिसरन वाली खुद रै ग्येन,
खुद जु अब जीण का सहारा बणी ग्येन, 

म्यार टंगुड़ अब कु खिंचलु अर 
म्यार खुपड़ा खाणा कुन कु म्यार पिछन्या अटकलु,
जख रुपयोँ कु कुई हिसाब-किताब नी वख द्वी रुपया बान कु लड़लु ,
कु रात भर दगड़ी जागी कन म्यार दगड़ी पढ़लु ,
कु म्यार कोपी-किताब में से पुछ्यां बिना ली जाल,
कु म्यार नयुँ-नयुँ नो बणाल,
मीन अब सुद्दी-मुद्दी कै दगड़ लण,
बिना विचार सुद्दी कै दगड़ गप्प लगाण,
कु फ़ेल ह्वाण पर मीथे पुल्याल,
कु गलती से नं॰ लाण पर गाली सुणाल , 

दुकनी मां चाय-पकोड़ कै दगड़ी खोलु,
वु भलु दिनां कै दगड़ी ज्युलु,
यन दगड़्या कख मिलला 

जु भ्याल मां तुमतै लमडे दयाला, 
पर तुमथै बचाण कुन अफीक भी लमडी जाला.
म्यार गीत सुणी कंदड़ पुटुक उँगील कु द्यालु , 

कभी मीथे छोरी दगडी बात कोरीँ देख फंटी कु बणालु,
कु ब्वालल माचद त्यार मजाक मां होँस नी आई ,
कु पिछन्या बटी धारी लगे की बुललु..अगण्या देख रे भाई,
पिक्चर मी केक दगड़ी दिखलु,
केक दगडी बैठीक गुरजी तै परेशान करलु,
बिना डर्याँ सच बुल्ना की हिम्मत कु करलु,
अचानक कैता भी देखि सुद्दी हँसुंण,
कुजणी फिर कब ह्वाल,
दगड़्योँ बान गुरजी दगड़ फिर कब लड़ला,
क्या हम ई दुबर कर पोला,
सुबेर-सुबेर बिज्जी कन तयार कु ह्वाल, 

छज्जा मनन कुदणा की शर्त कु लगाल,
कु म्यार काबिलियत पर मीथे भरोसो दिलाल 

अर ज्यादा बथोँ मा उडण पर भीम लाल,
म्यार खुशी देखी सच मां खुश कु ह्वाल,
म्यार खैरी देखी में से ज्यादा दुखी कु ह्वाल…

बोला दगड़्योँ ई दुबर कब ह्वाल....!

आशा करदु की हम दुबर फिर मिलला...!!



(रचनाकार : दिनेश सिंह नयाल )

पट्टी/तल्ला : उदयपुर
ब्लोक : यमकेश्वर
वि.आ : भ्रगूखाल 


उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल

सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित

Sunday, 10 June 2012

My View About Single

No , I am not single 
I am in a long
distance relationship
because my
Girl lives in the 
FUTURE


By Dinesh Nayal (A Garhwali guye..)

My Love for Garhwal

real love for my garhwal
Jai dev bhoomi!!
Jai badri kedar..!!
Jai Garhwal..
Jai Uttrakhand..!!

By Dinesh Nayal (A garhwali guye..!)

Wednesday, 30 May 2012

हुक्का

म्यार पहाड़ कु हुक्का च 
दान मनख्योँ की जान, 
गुड़गुड़गुड़गुड़गुड़ 
कि ये मां बस्युं च 
बुढ़-बुढ़्योँ कु प्राण, 
चा हो कतगा थकावट
या खुट-हत करना ह्वा परेशान 
गुड़गुड़गुड़गुड़ 
एक सुटका मारी 
वापस ऐ जदीन जान-प्राण, 
है ब्वारी यखुम आदी 
चुल्ल मनन अंगार लादी 
बल श्याम ह्वेगे तलब बहुत लगी रे 
तंबखु डाली की हुक्का जला दी 
गुड़गुड़गुड़गुड़ 
म्यार पहाड़ कु हुक्का च 
दान मनख्योँ की जान, 
गुड़गुड़गुड़गुड़गुड़ 
कि ये मां बस्युं च 
बुढ़-बुढ़्योँ कु प्राण, 
अब त घाम अछेँ ग्ये 
रुमुक पड़ी ग्ये 
गौं का बुढ़-बुढ़्योँ कु 
पंगत लगी ग्ये 
कन खट्टी-मीट्ठी छुईँ चन लगोँदा 
अर एक तरफ बटी 
गुड़गुड़गुड़गुड़ 
हुक्का छन सुटकोँणा 
ल्या ब्वाड़ा तुम भी प्या 
ल्या बोड़ी तुम बी ल्या 
ब्वाड़ा तै खांसी-खंकार च आणा 
गुडगुडगुडगुड हुक्का च प्याणा 
म्यार पहाड़ कु हुक्का च 
दान मनख्योँ की जान, 
गुड़गुड़गुड़गुड़गुड़ 
कि ये मां बस्युं च 
बुढ़-बुढ़्योँ कु प्राण..... 


(रचनाकार : दिनेश सिंह नयाल )

पट्टी/तल्ला : उदयपुर
ब्लोक : यमकेश्वर
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Tuesday, 29 May 2012

मेरा नजरिया

बैठ कर किनारे पै मैरा दीदार ना कर मुझको समझना है तो समन्दर मे उतर कर देख..!!

Monday, 28 May 2012

शायरी

डरता हूँ मैं कहीं पागल ना बन जाऊँ,

तीखी नजर और सुनहरे रुप का कायल न बन जाऊँ,


अब बस कर जालिम कुछ तो रहम कर मुझ पर,


चली जा मेरी नजरों से दुर कहीं


मैं शायर ना बन जाऊँ.....।

Sunday, 27 May 2012

पहाड़ कु ठंडो पानी

पाणी की भारी समस्या हुईँ 
रे मेरा गौं मा,
ये बार जब छुट्टी ग्यों 
पाणी सरना रों छोया
-गदनोँ (कुत्ताकटली) मा, 
कन मेरी गोली छे उबाणी, 
तीसा बाणा गीच्च मनन 
थूप बी नी छे आणी, 
पहाड़ को ठंडो पाणी , 
बल तीसा गोलों मा पड़नी 
छे स्याणी, 
आहा धार मनक पाणी 
क्या रोंस छे आणी 
नहयाणा रों आहा कन ठंडो 
छोयों कु पाणी, 
भरी बंठा-गागर 
भरी डब्बा 
अर खणमण-खणमण कोरी 
गीरे दे बरमंड मा 
आहा कन ठंडो पाणी 
जन बुल्या कैन अंखड़्ये दे ह्वाल 
फ्रीज मनक बोतल, 
श्येल पोडीगे शरील मा 
ठंडु पोड़ग्ये शरील, 
यन ठंडो पाणी कबी 
मिल नी सकदु शहर मा, 
जैमा मेरु पहाड़ कु स्वाद बस्यु हो...

(रचनाकार : दिनेश सिंह नयाल )

पट्टी/तल्ला : उदयपुर
ब्लोक : यमकेश्वर
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Thursday, 24 May 2012

हाल यन छन म्यार पहाड़ का



हाल यन छन म्यार पहाड़ का,
मनखि चली जांदिन अपुर घोर
-बार पुंगडी पटली छोड़ी की,
रैं जांदिन उँका पिछन्या टुटीं
अर उजडीँ कुड़ी,
अशाढ आई फागुण आई
पर जब आई बसगाल,
पुरी कुड़ी उजड़ी गई,

माटा पुरी बोगी गै
अर निर्पट ह्वे गी घर-बार
त दीदोँ हाल यन छन म्यार पहाड़ का,
हे मनखी तुम इतगा त जाणा,
तुम बगेर ये कुड़ी कन कै रयाणा
इतगा नीठुर ना बण्या,
अपणा घोर-बार दिखणा रयाँ..!!

हाल यन छन म्यार पहाड़ का...
हाल यन छन म्यार पहाड़ का...

(रचनाकार : दिनेश सिंह नयाल )




पट्टी/तल्ला : उदयपुर
ब्लोक : यमकेश्वर
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उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल

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Wednesday, 23 May 2012

पहाड़ पुकारता है










थम चुकी है बारिश

बस रह-रह कर गीली दीवारों से
कुछ बूँदें टपक पड़ती है
मैं अपनी छत पर जाकर
देखता हूं पहाड़ों का सौंदर्य

कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं

मेरे घर के ठीक सामने के पहाड़ पर
है बाबा नीलकंठ का डेरा
इधर उत्तर में विराजमान हैं
माता कुंजापुरी आशीष दे रहीं
इनके चरणों मैं बैठा हूँ 

कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं

बारिश के बाद अब धुलकर हरे-भरे हो गए हैं
पहाड़ सफ़ेद बादलों के छोटे-२ झुण्ड बैठ गए
है इसके सर पर इस अप्रतिम सौंदर्य
को निहारता हूँ 

कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं

पहाड ने दिए हमें पेड़, पानी, नदियाँ, गदेरे
ये रत्न-गर्भा और ठंडी बयार
पर पहाड़ का पानी और जवानी
दोनों ही बह गए इसके ढलानों पर
मैं पहाड़ पर नहीं हूँ

फिर भी कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं

पहाड़ को कभी रात में देखा है
हमारी संस्कृति का ये महान प्रतीक
अँधेरे में सिसकता है, दरकता है
पुकारता है आर्द्र स्वर में कि लौट आओ
मैं पहाड़ पर लौट नहीं पा रहा हूँ

पर कितना खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं

ये खुदेडा महीना उदास कर रहा है
क्यों बादल ही तो बरसे हैं फिर
भला आँखें मेरी नम हैं
क्यों पहाड़ रो रहा है, हिचकी मुझे आती है
क्यों मैं समझ नहीं पा रहा हूँ,

क्या वाकई खुशनसीब हूं मैं
कि पहाड़ मेरे पास हैं..




नोट- इस कविता में पहाड़ों से युवाशक्ति के पलायन और पहाड़ का दर्द व्यक्त करने की ये मेरी एक कोशिश भर है|

Wednesday, 21 March 2012

पश्चिमी सभ्यता के दुष्प्रभाव और अच्छे प्रभाव

मैं पश्चिमी सभ्यता के दुष्प्रभाव और अच्छे प्रभाव की सूची बना रहा हूं और मैं चाहता हूं आप उस सूची के आधार पर अपना विचार प्रकट करे। पश्चिमी सभ्यता के अच्छे प्रभाव: 1) पश्चिमी सभ्यता से हम प्रतिस्पर्धात्मक दुनिया में कदम रख पाए है अब भातीय भी बिना संकोच किये आगे बढ रहे है। 2) आज औरत भी अपने विचार प्रकट कर सकती है और घर की चाहरदीवारी से बाहर निकल पाई है। इसके अलावा पश्चिमी सभ्यता के कोई और अच्छे प्रभाव नहीं नजर आते। अब एक नज़र पश्चमी सभ्यता के दुष्प्रभावो पर : 1) संयुक्त परिवार खत्म हो चुके है, सभी अलग रहना पसंद करते है। बच्चे अपने नजदीकी रिश्तेदारों तक को नही पहचानते| लोग रिश्तो के महत्व को भूलते जा रहे है। 2) आज की युवा पीढ़ी केवल अपने बारे में सोचती है,वह बहुत स्वार्थी हो गयी है। 3) आज की युवा पीढ़ी परिवार के साथ समय व्यतीत करके आनंद लेने के बजाय दोस्तों के साथ समय व्यतीत करना अधिक पसंद करती है। 4) डिस्को, पब, शराब, सिगरेट आदि पीना जीवन शैलीके अंग बन गये है। 5) नाबालिग लड़का,लडकी,यौन सम्बन्ध स्थापित कर रहे है। 6) पैसो को रिश्तो से अधिक महत्व दिया जा रहा है। 7) जंक फ़ूड हमारे रोंज के खाने में शामिल हो गया है। 8) अंग प्रदर्शन सिनेमा से निकल आम लोगों की जिंदगी में शामिल हो गया है। 9) इंटरनेट के प्रयोग से अश्लीहलता बढ् गयी है। 10) बच्चे अपने माता-पिता को बोझ समझने लगे है और उन्हें वृदाश्र्म में छोड़ना अधिक पसंद करते है। 11) प्रात: काल की सैर, व्यायाम, योग आदि दिनचर्या से खत्म हो गये है। 12) घर में दादा-दादी के ना होने के कारण बच्चो में संस्कारों का अभाव है। उन्हें सही गलत में अंतर नही मालूम,अपने से बडो का आदर करना भूल रहे है। भारत वो देश है जहा गाय को भी गोउ माता कह कर पूजा जाता है और उसी देश के वासी पूजनीय माता-पिता को वृदाश्र्म में छोड़ देने की सोच रखने लगे है। जंक फ़ूड का सेवन बहुत अधिक हो रहा है जो सेहत के लिए बहुत नुकसान दायक है, आजकल छोटे-छोटे बच्चे गंभीर रोगों से ग्रस्त हो रहे है। लोग व्यायाम व योग आदि को भूल गये है कोई भी बीमारी हो बस दवाईयों का प्रयोग करना अधिक अच्छा समझते है। जहां पहले ये कहा जाता था EARLY TO BED AND EARLY TO RISE MAKES A PERSON HEALTHY, WEALTHY AND WISE. लेकिन आज की युवा पीढ़ी ने यह कहावत ही बदल दी है अब अक्सर उन्हें ये कहते हुए सुना जाता है- LATE TO BED AND LATE TO RISE, MAKES A PERSON HEALTHY, WEALTHY AND WISE. अब यह पश्चिमी सभ्यता नहीं है तो क्या है? इसी को अपना कर आज भारतीय भी ऐसे-ऐसे रोगों से घिर गये है जिन रोगों का नाम केवल पश्चिम देशो में ही सुना जाता था| यही वह भारत देश है जहा पर लडकी बिना दुपट्टे के घर के आदमियों के सामने भी नही आती थी और अब पश्चमी सभ्यता का रंग इतना छाया हुआ है की खुले आम अंग प्रदर्शन कर रही है, टीवी पर उन चीजों (कॉन्डम, ब्रा, पैड) के विज्ञापन (advertisements ) दिखाई जाती है जिन्हें पहले कहने में भी संकोच किया जाता था और अब पूरा परिवार एक साथ बैठकर इन्हें देखता है। क्या यह हमारी संस्कृति है? बुरी संगत का यही असर होगा। अब संयुक्त परिवार नहीं होने से बच्चे अपने आपको तन्हा महसूस करते है और गलत आदतों का शिकार हो जाते है| घर पर दादा- दादी, अंकल-आंटी भी नहीं होते जो माँ-बाप की गैरहाजरी में उनपर नज़र रख सके और बच्चे आज़ादी का गलत फायदा उठाते है, अकेलापन दूर करने क लिए नशे को अपना साथी चुनते है। अपना समय व्यतीत करने के लिए इन्टरनेट का अधिक प्रयोग करते है, जो केवल शारीरिक समस्याएं उत्पन नही करता बल्की अश्लील तस्वीरे व फिल्में युवा पीढ़ी के दिमाग एवं मन पर भी बुरा प्रभाव डाल रही हैं। कम्प्यूटर हमेशा घर के उस कमरे में होना चाहिए जहां बच्चो के अलावा अन्य लोग भी स्क्रीन पर चल रहे प्रोग्राम को देख सके। ताकि इन्टरनेट का गलत प्रयोग ना किया जा सके। कहने का साफ़ तात्पर्य यह है की किसी भी सभ्यता से गुण व अवगुण सीखना हमारे अपने हाथ में है। अपने संस्कारो के साथ सभ्य व्यक्ति बनना कोई कठिन कार्य नही है, हम भारतीय चाहे तो हम स्वयम और अपनी आने वाली पीढ़ी को भारतीय संस्कारो के साथ आज की प्रतिस्पर्धात्मक दुनिया का सामना करते हुए संस्कारी,सभ्य व सफल व्यक्ति बना सकते है।

Friday, 9 March 2012

आत्मकथा-२

मेरा नाम दिनेश नयाल है। हाईस्कूल और इंटर केन्द्रीय विद्यालय तुगलकाबाद, नई दिल्ली से किया। फिलहाल अभी कानपुर से सोफ़्टवैर इंजीनियरिंग कर रहा हूँ। साथ ही कानपुर विश्वविद्यालय से क्रमश:वृद्धि कर रहा हूँ जो भगवान जाने कब होगी , ओर ज्यादा क्या बताऊं अपने बारे में हाँ दोस्ती का जज़बा दिल में कुट-कुट कर भरा है ,मित्र बड़ी जल्दी बना लेता हूँ शायद इसी खूबी की वजह से नये शहर में कोई ज्यादा परेशानी नहीं हुई। इसे आप मेरी कमजोरी भी समझ सकते हैं क्योंकि इसी खूबी के कारण कई बार मैं धोखा खा जाता हूँ। एक ओर अच्छी आदत है जिसे कई लोग बुरी आदत भी समझते हैं ' सिगरेट'। सिगरेट के साथ दाँत कटे मित्र असानी से बन जाते हैं किसी भी नये शहर में जाईये आप जैसे 2-3 सूटेरी अवश्य मिल जाएँगे। अत: मेरे जीवन की मित्रता में सिगरेट की एक मुख्य भूमिका है। पर सच कहूँ तो अब जिंदगी में न वो मित्र रहेँ हें न वो स्कूल की मस्ती के साथ कड़े अनुशासन। स्कूल छोड़ने के बाद की जिंदगी तो जैसे बेरंग सी हो गई है। अब कोई मित्र मिलता भी हे तो फ़ार्मल हाय-हैलो के सिवा कुछ ओर नहीं हो पाता। वो मित्रों के साथ बिताए पल जब याद आते हें तो रोंगटे खड़े हो जाते हें। जानता हूँ वो पल कभी वापस नहीं आ सकते बस यादें आती हें। अब सामने भविष्य की 100 चिंताएँ हैं जानता हूँ अच्छे मित्र बनाना बहुत मुश्किल है, जिसे मैं फेसबुक में ढूँढ रहा हूँ।


(रचनाकार : दिनेश सिंह नयाल )

पट्टी/तल्ला : उदयपुर
ब्लोक : यमकेश्वर
वि.आ : भ्रगूखाल 


उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल

सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित

Sunday, 26 February 2012

लेकिन हर एक दोस्त जरुरी होता है….

वो हमको फूल फूल कह के फूल बना गए……. 
हम गए पास तो एक कांटा चुभा गए…
जाने कहा से फिर से याद आ गयी उनकी…
सोने से पहले एक बार फिर से हमें रुला गए….
नींद खुली तो एहसास हुआ की वो एक सपना था…
सामने देखा तो बैठा कोई अपना था… 
मेरे दो दोस्त ठहाका लगा रहे थे… 
बोले सपने में भी तुम हमको बुला रहे थे… 
सपना भी कभी कभी हकीकत की तरह होता है…
वजह कोई भी हो , लेकिन हर एक दोस्त जरुरी होता है…..

Thursday, 23 February 2012

गोल्ड फ्लेग से मोमेन्ट्स तक का सफर!! (आत्मकथा)






गोल्ड फ्लेग सिगरेट लेकर रेत के टीले के पीछे छुपते हुए दो-चार साईकिल से जाते थे…… 


किसी पहाड़ी में छिपकर रोज वो सिगरेट जो सफेद-भूरे रंग की होती थी…


बेस्वाद सी लगती थी … 


पर दो-चार कश लेने के बाद फ़िर कड़वी लगने लगती थी… 


क्यों वो बाद में पता चला .. 


सिगरेट तो पीनी आती नहीं थी ….. 


पहले कश में ही सिगरेट का फ़िल्टर अपनी जीभ से गीला कर देते थे और फ़िर वो कसैलापन मुँह में चढ़ता ही जाता । 






सिगरेट के जलते हुए सिरे को देखते हुए उस सिगरेट को खत्म होते देखते थे… 


सिगरेट का धुआँ और उसकी तपन शुरु में असहनीय होती थी… 


बाद में पता चला कि जब सिगरेट जलती है और जो आग उस सिगरेट को ऐश में बदलती है उसका तापमान १०० डिग्री होता है… 






पहली बार हमारे भौतिकी विज्ञान के प्रोफ़ेसर ने बताया था कि इसे ऐश कहते हैं… 


हम तब तक जिंदगी के मजे लेने को ही ऐश समझते थे, 


पर उस दिन हमें असलई ऐश समझ आई कि सिगरेट की राख जो कि जिंदगी को भी राख बना देती है, उसे ऐश कहते हैं… 






पता था कि ऐश करना अच्छी बात नहीं है… 


परंतु बहुत देर बाद समझ में आई ये बात… 


एक मित्र था अनुराग कहता था कि किसी भी नये शहर में जाओ तो सिगरेट और दारु से दांत काटे मित्र बड़ी ही आसानी से बन जाते हैं, 


किसी भी पानवाड़ी की गुमटी को अपना अडडा बना लो और फ़िर देखो …. 






जब शहर बदला तो यही फ़ार्मुला अपनाया 


और रेगुलर/गोल्ड फ्लेग छोड़ मोमेंट्स के साथ बहुत से दोस्त बनाये… 


अब लगता है वो ऐश खत्म होने से अच्छी दोस्ती खत्म हो गई, 


लोग आपस में बात करने के लिये समय नहीं निकाल पाते… 


कम से कम ऐश करते समय आपस में पाँच मिनिट बतिया तो लेते हैं… 


पर क्या करे हम ऐश करना छोड़ चुके हैं…. 


पर वो गोल्ड फ्लेग का कसैलापन अभी भी याद है…














(आत्मकथा : दिनेश सिंह नयाल ) 


पट्टी : तल्ला उदयपुर


ब्लोक : यमकेश्वर


वि.आ : भ्रगूखाल उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल 


सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित



Thursday, 16 February 2012

मैं कौन हूँ

मैं कौन हूँ , मैं कौन हूँ , मैं कौन हूँ । 
जर्रा हूँ , समन्दर हूँ , या तुफान हूँ , 
मैं कौन हूँ , मैं नहीं जानता , मैं खुद 
से अभी तक अनजान हूँ । 
पानी हूँ , कश्ती हूँ , या साहिल हूँ , 
जीवन से बन्धा एक रिश्ता या , 
रिश्तो में बन्धी एक जान हूँ । 
आँखों में छुपा एक आँसूं हूँ या , 
दिल में बसा एक अरमान हूँ । 
मैं कौन हूँ ,मैं कौन हूँ ,मैं कौन हूँ मैं कौन हूँ , 
मैं नहीं जानता , मैं खुद से अभी तक अनजान हूँ । 
कौन हूँ मैं , गैर हूँ या अपना हूँ , 
बोझ हूँ किसी पर , या दुआ हूँ या , 
खुदा का किया कोई एहसान हूँ । 
मैं कौन हूँ……… 
खुशी हूँ , दर्द हूँ , या कोई एहसास हूँ , 
तन्हा हूँ या मैं किसी के पास हूँ , 
साज़ हूँ , राग हूँ , या दर्द भरी आवाज़ हूँ , 
मैं कौन हूँ , मैं नहीं जानता , 
मैं खुद से अभी तक अनजान हूँ । 
गीत हूँ , गज़ल हूँ , या शायर का कोई अन्दाज़ हूँ , 
मैं कौन हूँ , मैं कौन हूँ , मैं कौन हूँ , 
अन्त हूँ , मध्य हूँ , या कोई आगाज़ हूँ 
मैं कौन हूँ ,मैं कौन हूँ ,मैं कौन हूँ , 
सोचते सोचते एक उम्र गुज़र जायेगी , 
है यकीं मुझको मेरी पहचान मिल जायेगी।




(रचनाकार : दिनेश सिंह नयाल )

पट्टी/तल्ला : उदयपुर
ब्लोक : यमकेश्वर

उत्तराखंड पौड़ी गढ़वाल

सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित

Tuesday, 14 February 2012

शहीद / ऐ वतन ऐ वतन

तू ना रोना, कि तू है भगत सिंह की माँ
मर के भी लाल तेरा मरेगा नहीं
डोली चढ़के तो लाते है दुल्हन सभी
हँसके हर कोई फाँसी चढ़ेगा नहीं

जलते भी गये कहते भी गये
आज़ादी के परवाने
जीना तो उसी का जीना है
जो मरना देश पर जाने

जब शहीदों की डोली उठे धूम से
देशवालों तुम आँसू बहाना नहीं
पर मनाओ जब आज़ाद भारत का दिन
उस घड़ी तुम हमें भूल जाना नहीं

ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी क़सम
तेरी राहों में जां तक लुटा जायेंगे
फूल क्या चीज़ है तेरे कदमों पे हम
भेंट अपने सरों की चढ़ा जायेंगे
ऐ वतन ऐ वतन

कोई पंजाब से, कोई महाराष्ट्र से
कोई यूपी से है, कोई बंगाल से
तेरी पूजा की थाली में लाये हैं हम
फूल हर रंग के, आज हर डाल से
नाम कुछ भी सही पर लगन एक है
जोत से जोत दिल की जगा जायेंगे
ऐ वतन ऐ वतन ...

तेरी जानिब उठी जो कहर की नज़र
उस नज़र को झुका के ही दम लेंगे हम
तेरी धरती पे है जो कदम ग़ैर का
उस कदम का निशां तक मिटा देंगे हम
जो भी दीवार आयेगी अब सामने
ठोकरों से उसे हम गिरा जायेंगे

Friday, 10 February 2012

शुभ रात्रि

चलो मित्रो अब चलते है
कुछ सपने देखते है
रात को प्रेम और आनंद से बिता देते है... आप भी सोचे कितना थक गए है हम
अब इस थकान को जड़ से मिटा देते है ताकि सूरज की पहली किरण के साथ फीर एक नयी शुरुवात हो
जीत ले सारी दुनिया ऐसा आत्म विश्वास हो
आज की हार को भूल जाये हम कल की जीत के लिए हो तैयार हम

शुभ रात्रि

(रचनाकार: दिनेश सिंह नयाल )
9.2.2012
सर्वाधिकार सुरक्षित एवं प्रकाशित